सच में कब तक आ सकेगी एंटी कोरोना वायरस वैक्सीन?

सच में कब तक आ सकेगी एंटी कोरोना वायरस वैक्सीन?


कोविड 19 (Covid 19) की वैक्सीन बनाने की इच्छाओं और काम में हर तरफ तेज़ी देखी जा रही है, लेकिन यह जल्दबाज़ी घातक साबित हो सकती है, इतिहास (History) गवाह है. 1950 के दशक में जब पोलियो (Polio) की एक वैक्सीन को आनन फानन में मंज़ूरी दे दी गई थी, तब क्या हुआ था? उस वैक्सीन (Vaccine) में वायरस (Virus) का एक वर्जन मृत न होने की वजह से जिन्हें वो वैक्सीन दी गई, उन्हें वास्तव में पोलियो हुआ और कई बच्चों की मौत हुई.

इस कहानी से समझना यह चाहिए कि वैक्सीन ज़िंदगी बचाने के लिए है इसलिए इसका प्रामाणिक रूप से पुख्ता होना ज़रूरी है. ब्रिटेन (Britain) सहित कुछ जगहों पर कोरोना वायरस (Corona Virus) के खिलाफ वैक्सीन के मानवीय परीक्षण (Human Trials) शुरू हो चुके हैं, लेकिन इसके बावजूद अगर बहुत आशावादी भी रहा जाए तो क्या यह सच है कि इस साल के अंत तक वैक्सीन सबके लिए उपलब्ध हो पाएगी? जानें सच्चाई कितनी कठोर हो सकती है.

चार साल तो कम से कम लगे हैं!
अमेरिका में कोरोना वायरस टास्क फोर्स के प्रमुख विशेषज्ञ डॉ फॉकी पहले ही कह चुके हैं कि इस महामारी की कोई भी वैक्सीन आने में 12 से 18 महीने का समय लगेगा. एनवायटी की ताज़ा रिपोर्ट इस टाइमलाइन को भी आशावादी करार देकर कह रही है कि क्लिनिकल ट्रायल बहुत कम सफल हो पाते हैं और फिर हमारे लिए यह वायरस एकदम नया है. अब तक का इतिहास है कि किसी भी एकदम नई बीमारी के लिए वैक्सीन बनाने में कम से कम चार साल तो लगे ही हैं.

क्या कोरोना वायरस को समझा जा चुका है?
कोरोना वायरस के स्वभाव, स्वरूप और क्रियाओं को समझने का काम विज्ञान जगत ने लगभग पूरा कर भी लिया हो, तब भी शोधकर्ताओं को अपनी स्टडी और उसके तथ्यों को संरक्षित करने में ही सालों लग जाते हैं. उसके बाद मंज़ूरियां मिलने में भी लंबा वक्त लगता है. बहरहाल, यह आपातकाल है इसलिए इसमें हर चरण में कम समय लगने की उम्मीद की भी जा सकती है.

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कोविड 19 की वैक्सीन प्रक्रिया की टाइमलाइन को लेकर एनवायटी ने ग्राफिक के ज़रिये बताया है कि मई 2036 तक प्रामाणिक वैक्सीन आ सकेगी.


एनवायटी की रिपोर्ट की मानें तो इस समय दुनिया में कोविड 19 से निपटने के लिए कम से कम 254 थैरेपियों और 95 टीकों पर पहले ही काम शुरू हो चुका है. अमेरिका के एक मेडिकल कॉलेज के डीन डॉ. हॉटेज़ के हवाले से लिखा गया है कि अगर 18 महीने की समयसीमा तय कर भी ली जाए तो यह लक्ष्य हासिल करने के लिए आपको कई सक्षम घोड़े रेस में एक साथ उतारने होंगे. यानी कई मोर्चों पर मुस्तैद होना होगा.

10% ट्रायल ही हो पाते हैं मंज़ूर
दुनिया में दर्जनों कोविड 19 वैक्सीनों के क्लिनिकल ट्रायल चल रहे हैं जिनमें से कई टीके आरएनए और डीएनए तकनीक से तैयार किए गए हैं. लेकिन शोधकर्ता जानते हैं कि जितने क्लिनिकल ट्रायल्स होते हैं, उनमें से 10% को ही मंज़ूरी मिल पाती है. बाकी किसी न किसी वजह से नाकाम हो जाते हैं. कई बार तो यह भी होता है कि ये टीके ठीक होते हुए भी चलन में आ चुकी दवाओं से बेहतर असरदार नहीं होते या उनके साइड इफेक्ट ज़्यादा होते हैं, इसलिए भी मंज़ूर नहीं हो पाते.

क्या होती है वैक्सीन की प्रक्रिया?
क्यों कहा जाता है कि किसी ​वैक्सीन के विकास में सालों या दशक से ज़्यादा भी समय लग जाता है? अस्ल में, क्लिनिकल से पहले तैयारी का काम होता है. उसके बाद ट्रायल के लिए पायलट फैक्ट्री को पर्याप्त डोज़ का उत्पादन करना होता है.

दूसरी ओर, वैज्ञानिक किसी भी वैक्सीन को लेकर कठोर परीक्षणों के पैरोकार होते हैं. पहले बहुत कम लोगों पर वैक्सीन टेस्ट होती है, फिर कुछ सौ लोगों पर दूसरे चरण का टेस्ट होता है और फिर कुछ हज़ारों पर टेस्ट कर इसके नतीजों को स्टडी किया जाता है. यह लंबी प्रक्रिया है. इसके बाद सकारात्मक परिणाम आने पर ही वैक्सीन के उत्पादन को हरी झंडी दी जाती है.

अगर हम ये सब पारंपरिक तौर पर करते हैं, यानी परीक्षण वगैरह सब तय पैमानों पर होते हैं तो 18 महीनों में कोविड 19 के लिए वैक्सीन मार्केट में ले आना संभव नहीं है. इस समयसीमा में वैक्सीन के लिए हर काम को शॉर्टकट तरीके से करना होगा.


— अकीको इवासाकी, इम्यूनोबायोलॉजिस्ट : येल यूनिवर्सिटी


कहीं वैक्सीन ही न हो जाए जानलेवा!
जल्दबाज़ी की वजह से कहीं ऐसा न हो कि वायरस और भड़क उठे या महामारी और खतरनाक हो जाए! एचआईवी दवाओं और डेंगू के टीके के साथ पहले ऐसा हो चुका है क्योंकि टीके से प्रेरित प्रक्रिया इतनी तेज़ हुई थी कि रोग और भयानक हो गया था. इसलिए शोधकर्ता ये नियम जानते हैं कि ट्रायल के किसी भी प्रतिभागी को आप रोग के लिए संवेदनशील नहीं बनाया जा सकता. अगर ​18 महीने में वैक्सीन तैयार करने के लक्ष्य पर काम किया जाता है तो यकीनन यह लंबी प्रकिया नहीं अपनाई जाएगी.

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एचआईवी की दवाओं को लेकर जल्दबाज़ी करना महंगा पड़ा था. फाइल फोटो.


उत्पादन भी एक लंबी प्रक्रिया है
शोध और उसके बाद ट्रायल के बाद अगर तमाम मंज़ूरियां मिल भी जाएं तो समझना चाहिए कि फैक्ट्रियों में वैक्सीन का उत्पादन एक लंबा काम है क्योंकि क्योंकि किसी भी फैक्ट्री को एक नई वैक्सीन के लिए पहले पूरा नया सेटअप तैयार करना होता है. तयशुदा मानकों के हिसाब से लाखों करोड़ों डोज़ का उत्पादन और फिर उसकी चेकिंग की प्रक्रिया कम समय नहीं लेती.

उत्पादन की चुनौतियां
एक तरफ बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने कहा कि समय बर्बाद न हो तो इसलिए फाउंडेशन एक साथ सात अलग वैक्सीनों के लिए फैक्ट्रियों को तैयार करवाएगी. ऐसा इसलिए कि अगर उत्पादन के बाद किसी वैक्सीन को रद्द करना पड़े तो भी बाकी काम कारगर हो. वहीं, मर्क में वैक्सीन उत्पादन के पूर्व प्रमुख विजय सामंत के हवाले से कहा गया है कि उत्पादन बेहद मुश्किल काम है, खासकर इन हालात में. अमेरिका में केवल दो से तीन ऐसे टीकों के मास प्रोडक्शन की क्षमता है. और फिर जब कोई देश वैक्सीन बनाता है तो पहले अपने देश में आपूर्ति करता है, बाकी दुनिया के लिए बाद में.

तकनीक पर भी हैं सवाल
अभी जिन वैक्सीन पर तेज़ी से काम जारी है, उनमें से ज़्यादातर एमआरएनए जैसी तकनीक पर बन रही हैं और विशेषज्ञ मानते हैं कि इस तकनीक से अब तक कोई वैक्सीन कारगर नहीं हुई है. लेकिन, फार्मा कंपनियों को भरोसा है कि इस बार ऐसा होगा. इवासाकी कहते हैं कि 'इस समय मेरी बस यही दुआ ​है कि कुछ भी काम कर जाए, चमत्कार हो जाए क्योंकि हमें बहुत कुछ पता है नहीं.'

और फिर ब्यूरोक्रेसी का चक्कर
मान लीजिए कि वैक्सीन सचमुच तैयार हो गई, उसका खासा उत्पादन भी किसी तरह हो गया और समय आ गया कि डूबती अर्थव्यवस्था और मरते लोगों को बचाने के लिए टीके के इंजेक्शन दिए जाएं, लेकिन इससे पहले संघीय सरकार का काम बचता है. और यह ब्यूरोक्रेसी का बुरा सपना भी हो सकता है. रबर की एक मोहर कितनी जानें ले सकती हैं. इसलिए मंज़ूरी की मोहर से पहले क्रॉस चेकिंग का लंबा दौर चलता है जिसमें करीब साल भर और लग सकता है.


तो क्यों किए जा रहे हैं वैक्सीन जल्द आने के दावे?
इस पूरे ब्योरे के बाद आपके मन में यह सवाल उठना ही चाहिए कि इतनी पेचीदगियां हैं तो क्यों विशेषज्ञ और संस्थाएं 12 से 18 महीने में वैक्सीन आने के दावे कर रही हैं. यह पूंजीवादी व्यवस्था का कड़वा सच पेश करता है.

ये बायोटेक लगातार प्रेस में घोषणाएं कर रहे हैं. आपको समझना चाहिए कि ये ऐसा इसलिए कर रहे हैं ताकि उनके शेयरहोल्डर सुन सकें, जिन्होंने निवेश किया है, उन्हें उम्मीद मिल सके. ये लोक स्वास्थ्य के मकसद से नहीं किया जा रहा है.


— डॉ हॉटेज़


तो फिर कितना समय लगेगा वैक्सीन में?
यह समझने की बात है. एचआईवी वैक्सीन के काम को 40 साल पूरे होने के बाद क्या स्थिति है? तीसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल बेहद भयानक साबित हुए और सफलता की दर सिर्फ 30 फीसदी दिखी. अब कहा जा रहा है कि एचआईवी की वैक्सीन 2030 तक यानी शुरूआत से 50 साल बाद आ पाएगी.

लेकिन, कोविड 19 के साथ ऐसी​ स्थिति न हो तो बेहतर है और विशेषज्ञ मान रहे हैं कि इस वायरस के सिलसिले में ऐसा नहीं होगा. वैक्सीन न होने के बाद एचआईवी के मामले में इतनी उम्मीद तो मिलती ही है कि विज्ञान यह स्थिति बना देता है कि आप दवाओं या थैरेपियों के सहारे एक खासी उम्र तक जी सकते हैं. यानी, चुनौतियां बहुत हैं और ऐसे में अगर इस साल या अगले साल तक कोई कामयाब या कारगर वैक्सीन बनती है, तो यह किसी चमत्कार से कम नहीं होगा.

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